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असाटी समाज की ऐतिहासिक परिचय

असाटी समाज की आदिता के सम्बन्ध में इतिहास बताता है कि असाटी वैश्य उन्हीं वैष्णव में से हैं जब से ब्राम्हण, क्षत्रिय, शूद्र ये चार वर्ण बने हैं। हीरापुर निवासी स्वर्गीय चैधरी श्री दमरूलाल ने असाटी समाज की उत्पत्ति की जानकारी के लिये जाति भास्कर ग्रन्थ का अवलोकन किया है और उसमें 84 प्रकार के वैश्यों के नामों का उल्लेख बताया है जिसमें अयोध्यावासी वैश्य भी लिखे हैं।

अयोध्या राजधानी के निवासी होने के कारण प्रारंभ काल से लेकर आज भी अपने असाटी समाज की चिट्ठी पत्रियों में राम-राम, जय सियाराम, जय श्री सीताराम अथवा जय राम जी को ही लिखा जाता है। जैसे कि आग्रा के निवासी होने से अग्रवाल कहलाते हैं और उनकी चिट्ठी पत्रियों में अधिकतर जय गोपाल जय राधेश्याम लिखा जाता है।

झांसी जिले के कुमेड़ी ग्राम में स्वर्गीय दुर्जन सरकनया असाटी समाज में बड़े विद्वान और भक्त पुरूष हो गये हैं। इनका स्वाभाव भी ऐसा ही था कि देश में घूमना, विद्वानों की संगत करना और समाज सुधार के कार्य करना। एक समय इन्होंने तिरोड़ा ग्राम में 17 दिन तक एक पंचायत करके समाज की एकता की थी। श्री दुर्जन सरकनया ने अपनी एक रचियता पुस्तक में अपने को असाटी न लिखकर पूर्व अयोध्यावासी लिखा है। अब अपना समाज अयोध्यावासी से असाटी कैसे कहलाया उसका कारण यह है कि अयोध्या के निकट असाटी नाम एक ग्राम है। अपने पूर्वज, मुगलों के या किसी और के आतंक से या अकाल के कारण लगभग तीन चार सौ वर्ष पूर्व असाटी ग्राम से टीकमगढ़, छतरपुर आदि रियासतों के ग्रामों में आकर रहने लगे थे, अयोध्या की राजधानी का होने से अयोध्यावासी और असाटी ग्राम का होने से असाटी कहा जाना सन्देहरहित और स्वाभाविक है। इसलिए अयोध्यावासी-असाटी वैश्य ये तीनों नाम डंके की चोट पर निर्बिवाद हैं निवास-स्थान, देश और कर्Ÿाव्य पर ही तो सब जातियाँ बनी हुई हैं।

अपने पूर्वज असाटी ग्राम से रियासतों में जब आये थे तब लगभग सौ डेढ़ सौ से अधिक न रहे होंगे। कारण कि सन् 1944 से सन् 1973 के मध्य इन तीस वर्ष के कलखंड में 5228 की 9445 असाटी संख्या के अर्थात दूनी के लगभग हो गई है। यदि 300 वर्ष के पूर्व का अनुभव लगाया जाये तो सौ-डेढ़ सौ से अधिक नहीं आंकी जा सकती है। हर पीढ़ी में एक-एक के तीन-तीन व्यक्ति भी हों तो चक्रवृद्धि के अनुसार 1 के 3 , 3 के 9 , 9 के 27 , 27 के 81 , 81 के 243 , 243 के 729 अर्थात् सात पीढ़ी में एक के 729 हो जाते हैं। इससे पूर्णरूप से सिद्ध होता है कि अपने पूर्वज असाटी ग्राम से उपर्युक्त रियासतों में अल्प संख्या में ही आये थे।

तीन-चार सौ वर्ष पूर्व असाटी ग्राम से रियासतों में आने के प्रमाण इस प्रकार से सिद्ध होते हैं कि अपने असाटी समाज के जो मंदिर बने हैं वह संवत् 1700 से ही बने हैं इसके उपरान्त असाटी समाज के लोगों को समाज और नरेशों द्वारा साव, नायक, चैधरी, सवाई आदि की जो उपाधियाँ मिलीं हैं उनका कार्य-काल भी सौ दो सौ वर्ष से अधिक का नहीं है जो डायरेक्ट्री के पृष्ठों में आप पढ़ेंगे।

गोत्रों की आदिता के संबंध में इतिहास बताता है कि ‘‘भारतखण्डे आर्यावर्ते, अर्थात भारतवर्ष के निवासी आर्य कहलाते थे। जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में चार प्रकार की भिन्नता थी

इसलिए ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के चार भाग बने, जैसा कि भगवान ने कहा है ‘‘चार्तुवर्ण मया सृष्टि, कर्म, विभागशः’’। इस चारों वर्णों का एक ही सनातन धर्म था जिसका धर्म संस्कार, संस्कृति द्वारा सप्त ऋषियों के नाम से कश्यप, कौशल, वाशिष्ठ, गोयल, वासल्य, बांदल्य, चारल्य यह सात गोत्र हैं जो असाटी समाज में भी हैं। शेष चार जन गोत्र, माडल्य, फांदल्य, खोड़ल उपर्युक्त गोत्रों के उपनाम ही समझ में आते हैं, कारण कि इन चार गोत्रों के सिर्फ दस-दस ही घर हैं।

वंशों के नाम स्थान और व्यवसाय पर ही रखे गये हैं आजीविका के लिए जैसे कि कठरयाई के धन्धे से कटारिया, गुलाब से गुललहा, लोहे के धन्धे से लोहिया, अरस्या, पटवारी आदि हैं। इसी प्रकार निवास स्थान के कारण ग्रामों के नाम से भी वंशों के नाम हैं तिगोड़ा के तिगड़ैया, मातौल के मातोल्या, हीरापुर के हीरापुरिया, देवदा के देवदइया व देवरा, समर्रा के समरया, दलीपुर के दलीपुरिया और कुछ वंशों के नाम पदवी पर भी चलने लगे हैं जैसा कि नायक, चैधरी आदि हैं। स्थानों के नाम से अन्य वर्णों में भी वंशों के नाम हैं अयोध्या के अयोध्यावासी, गंगातट के गंगापारी, सरयूतट के सरयूपारी, कन्नौज के कन्नौजिया, मालवा के मालवीय बुन्देलखंड के बुन्देला, महोबा के महोबिया, राजपूताने के राजपूत इससे पूर्ण सिद्ध होता है कि वर्तमान युग में निवास स्थान और आजीविका के धन्धों से और कुछ पदवी के नाम पर भी वंश बने हैं। जबकि पिछले युगों में जिनके वंश में जो पुरूषार्थी पुरूष होते थे उनके नाम से वंश चलते थे जैसा कि राजा रघु से रघुवंशी आदि हैं। निमि से निमिवंशी, कुरू से कौरव, पाण्डु से पाण्डव, यदु से यदुवंशी आदि और कुछ वंशों के नाम सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी जैसे प्राकृतियों पर भी हैं।

असाटी समाज में वंशों की संख्या 84 भी बताई है जो सन् 1944 की जनगणना में 62 थे और अब सन् 73 की गणना में 59। रियासतों में असाटी समाज जब 84 ग्रामों में थी तब समाज की व्यवस्था के लिए बारह-बारह गांव के सात चैंतरे बनाये गये थे समाज का अधिक विस्तार हो जाने के कारण डायरेक्ट्री में अब प्रमुख ग्रामों के अन्तर्गत संपर्क के ग्रामों का नाम दर्शाया गया है। वंश, गोत्र और समाज की (उत्पति) अर्थात आदिता का परिचय बड़ी खोजबीन और प्रमाणों के साथ लिखा गया है।

आभार - राजेन्द्र (चंदू) असाटी,

संपादक – जनगणना/ टेलीफोन

युवक युवती परिचय डायरेक्‍टरी 2008

के प्रकाशित अनुसार